संसार में कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञाता नहीं है इसलिए हमें आपस में अपने-अपने ज्ञान का आदान - प्रदान करने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए क्योंकि सृष्टि के प्रत्येक प्राणी में कुछ ना कुछ खास होता है किसी ना किसी विषय पर उसकी पकड़ मजबूत होती है ज्ञान का सागर होता है दरअसल हमारे कुछ विशेष होने का झूठा दम्भ ही वास्तव में हमारे दुखों का असली कारण है ।जिस दिन हमें इस बात का ज्ञान हो जाता है उसी दिन से हमारा यह अहंकार तिरोहित हो जाता है और फिर हमें प्रत्येक व्यक्ति में कुछ ना कुछ या किसी ना किसी विषय से संबंधित ज्ञान का भंडार दिखाई देने लगता है अतः फिर हम उस व्यक्ति से कुछ भी सीखने ,समझने या ज्ञान लेने में किसी भी प्रकार की लज्जा या शर्म महसूस नहीं करते हैं फिर चाहे वह हमसे उम्र में छोटा हो या बड़ा।
दरअसल यह हमारा दृष्टि दोष ही है क्योंकि हमारी दृष्टि जैसी होती है वैसी ही हमें दुनिया दिखाई देती है इसका उदाहरण…. दुर्योधन को कभी कोई अच्छा व्यक्ति नहीं मिला और युधिष्ठिर को कोई बुरा व्यक्ति नहीं मिला।
जब विभीषण को रावण ने लात मारकर लंका से निकाल दिया था तब विभीषण श्री राम की शरण में गए।
राम जी के साथियों के मन में कई प्रकार की आशंकाएं तथा दुर्भावनाएं आने लगी कि हो ना हो विभीषण हमारा भेद लेने के लिए ही आए हैं ,इन्हें दंड देना चाहिए लेकिन श्री राम जी ने कहा कि……... जो पैं दुष्ट हृदय सोई होइ ,मोरे सन्मुख आव कि सोई।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोह कपट-छल,छिद्र ना भावा।।
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