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Friday, January 20, 2017

चुनावी महासंग्राम {२०१७}

 मतदान करो,मतदान करो।
लोकतंत्र का सम्मान करो।।
भारत, विश्व में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है।भारत में 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ था तभी से ही भारत में लोकतंत्र का अस्तित्व है।
संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि, “हम, भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न,समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का संकल्प करके तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय,विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने हेतु बंधुत्व बढ़ाने के लिए,अपनी इस संविधान सभा में आज 26 नवंबर, 1949 के दिन इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्म-समर्पित करते हैं।”

अब्राहिम लिंकन---”लोकतंत्र, लोगों का, लोगों के लिए और लोंगों द्वारा है।”

लेकिन अफ़सोस की बात है कि पिछले कुछ दशकों से भारत का लोकतंत्र सिर्फ और सिर्फ पूँजीवादी लोकतंत्र बनकर रह गया है।जहाँ अमीरों द्वारा गरीब जनता का शोषण किया जाता है।भारतीय राजनीति बहुदलीय है लेकिन शायद सिर्फ भ्रष्टाचार और मौकापरस्ती तक ही सिमट कर रह गई है।चहुँ ओर भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा तक व्याप्त है। निहित स्वार्थों में लिप्त होकर आम जनता को भड़काकर देश में जहाँ-तहाँ आये दिन बंद,आगजनी,हड़ताल, दंगे,उपद्रव,आतंकवादी गतिविधियो ने लोकतंत्र के आदर्शों पर गहरा आघात पंहुचाया है।
आज के परिवेश में चुनाव का अर्थ ज़्यादातर जनता यही जानती है कि बैनर,नेताओं के पोस्टर,होर्डिंग्स,प्रत्याशियों द्वारा किये जा रहे दौरे,खाई जा रहीं कसमें,किये जा रहे वायदे,लंबे-चौड़े भाषण, दल-बदलू नेता,मध्यावधि चुनाव,उम्मीदवार द्वारा किये गए कार्यों का ब्यौरा और जीतने के बाद गली,क़स्बा,शहर और देश के विकास कार्यों की लंबी सूची………..का हवाला देकर झूठा आश्वासन|
आखिर ये सब झूठ क्यूँ और कब तक बर्दाश्त करे जनता ?
मतदाता आखिर कब जागरूक होगा ?

अब समय आ गया है ….भारतीय लोकतंत्र में सुधार अत्यावश्यक है।सतत् जागरूकता ही सही मायने में लोकतंत्र का मूल आधार है।राजनीतिक दलों को निजी स्वार्थों व भाई-भतीजावाद से ऊपर उठकर देश का भविष्य, आम जनता के हितों को सर्वोपरि रखने की कोशिश करनी चाहिए।पारदर्शिता और लोकतंत्र के हितार्थ परिवर्तन लाने की हिम्मत होनी चाहिए राजनीतिक नेताओं में।
वैसे अब आम जनता भी काफी जागरूक हो गई है।होना ही चाहिए तभी अपने मत के दुरुपयोग को रोक पाने में कामयाब होगी जनता।मतदाता को चाहिए कि वह किसी के झाँसे या झूठे, कोरे वादों ,किसी भी प्रकार के प्रलोभनों में न फँसकर अपनी बुद्धि-विवेक का इस्तेमाल करके ही अपने अमूल्य मत का दान करें ताकि सही प्रत्याशी का चुनाव हो सके,गलत प्रत्याशी को झेलने की नौबत न आने पाए। मतदान अवश्य करें क्योंकि मतदान हर वयस्क का अधिकार है,कर्तव्य है,फ़र्ज़ है जिसे हर हाल में निभाया ही जाना चाहिए।


2017 के चुनावी दंगल में तकरीबन 29-30,000 युवा मतदाता  भी पहली बार लोकतंत्र में शामिल होने के ज़ज़्बे से खासे उत्साहित हैं।उनके उत्साह,नए एहसास की वज़ह यही है कि राष्ट्र के प्रति अब उनकी भी जिम्मेदारी ,जवाबदेही है,राष्ट्र के विकास में सहयोग करने की।
युवा हो तुम, देश की शान।
जागो,उठो करो मतदान।।

याद रखें,कि अपने बुद्धि, विवेक का इस्तेमाल कर मतदान करना चाहिए । किसी भी प्रकार के लालच मैं न फँसे।सभी प्रत्याशी खुद के कार्यों के गुणगान गाएंगे अन्य दलों की आलोचनाएँ करेंगे,स्वयं को बेहतर सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का दम लगाएंगे। सच -झूठ , सही-गलत, न्याय-अन्याय,बेहतर-बदतर……. ये निर्णय  मतदाता का है किसी भी दल के प्रत्याशी का नहीं।
मत भूलो,...... आपके वोट से आएगा बदलाव,
                    सुधरेगा समाज,कम होगा तनाव।



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Sunday, October 23, 2016

अस्तित्व


 व्यक्ति की स्वयं पर आस्था ही अस्तित्व का सृजन करती है| अस्तित्व मतलब ,आस्था+ तत्व{ गुण}, ये वो गुण होते हैं जो  सृष्टि के हर  व्यक्ति में आंतरिक या अंतर्मुखी होते हैं  अर्थात अपने मूलभूत गुणों के प्रति आस्था ही अस्तित्व का प्रथम सोपान है|
इसका दूसरा पहलू (बाह्यगुण)  जो कि किसी भी व्यक्ति को जन्म, जाति, स्थान, वर्ण, लिंग, परिवेश,परवरिश   आदि  से प्रभावित होता है । लेकिन इन बाहरी कारकों से अप्रभावित रहकर जो व्यक्ति अपनी दिशा में आगे बढ़ता है उसकी ज़िन्दगी का हर लम्हा सुख और शांति से व्यतीत होता है अत: इन बाहरी तत्वों से  ऊपर उठकर अपने मूलभूत गुणों का विकास कर लेना ही अस्तित्व है| अपने मूलभूत गुणों को बाहरी तत्वों के कारण खत्म नहीं होने देना चाहिए वरन अपने आंतरिक गुणों को पहचान कर, समझ कर उन्हें सही दिशा देने का प्रयास जारी रखना चाहिए| अस्तित्व कभी भी  अस्थाई या  निर्भर नहीं हो सकता है जरूरत है तो सिर्फ अपने अस्तित्व को पल्लवित करने की|
उदाहरणार्थ शिक्षक का अस्तित्व------ जो छात्र / छात्रा को उनके अस्तित्व से पहचान कराने में सहायक हो,सही मायने में वही शिक्षक/ शिक्षिका है क्योंकि जब शिक्षक / शिक्षिका का अस्तित्व नहीं रहेगा फिर भी उनकी छवि उनके छात्र / छात्राओं में प्रतिबिंबित होगी| वजह एक शिक्षक ही है जो अपने शब्दों से, अभिव्यक्ति के माध्यम से,अपने व्यक्तित्व से उदाहरण प्रस्तुत कर शाश्वत मूल्यों का निर्धारण करता है जिससे सृष्टि का अभ्युदय होता है|
अत्यावश्यक है कि हर व्यक्ति में  चिंतन, काम के प्रति रुचि, नवीनता, सकारात्मकता, रचनात्मकता एवं किए गए कार्य की गुणवत्ता व अपने अस्तित्व की उपयोगिता इन सभी मूल्यों का होना जरूरी है तभी वह अपने अस्तित्व को जीते जी व मरने के बाद भी कायम रख सकता है और सही मायने में इसी प्रकार का जीवन ही सार्थक जीवन कहलाता है| निरर्थक, निरुद्देश्य लंबे जीवन की कोई उपयोगिता नहीं है उदाहरणार्थ जिस प्रकार शाहबलूत का वृक्ष 300 साल तक एक लट्ठे की भांति खड़ा रहता है अपने इतने लंबे जीवन काल में ना किसी राहगीर को छाया प्रदान करता है और ना ही किसी को फल देता है और अंत में इतनी लंबी जिंदगी जीने के बाद  एक लट्ठे  की भांति गिर कर ख़त्म हो जाता है, वहीँ दूसरी ओर कुमुदिनी का फूल जिसकी जिंदगी सिर्फ 1 दिन होती है सिर्फ 1 दिन के लिए ही वह खिलता  है और शाम को मुरझा जाता है लेकिन अपनी खूबसूरती से, हर देखने वाले व्यक्ति की आंखों को, उसकी आत्मा को व दिलो-दिमाग को खुशी व खुशबू से प्रफुल्लित कर देता है| अपनी छोटी सी जिंदगी में ही कुमुदिनी का फूल अनगिनत लोगों  को खुशियां दे जाता है| अतः अति आवश्यक है कि हम अपने अस्तित्व को पहचान कर उसी के अनुरुप कार्य करें जिससे कि हमारा अस्तित्व मरने के बाद भी अमर रहे।


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